हम बस हिन्दू मुस्लमान बन के रह गए।HINDI POEM




हेलो दोस्तों ,
  ये कविता मेरे एक दोस्त के द्वारा लिखी गई है अगर पसंद आये तो मुझे बहुत ख़ुशी होगी। 
और मेरे इस website  पे आपको इसी तरह का और भी बहुत सारी  कवितायेँ मिलती रहें  गई। 


आज आम कहां से कहां पहुंच गए जाति धर्म  मजहब में उलझ कर
सदियां बीत गई मंदिर मस्जिद के फसा दो में फस कर
मजहब धर्म बनाने वालों ने इंसानियत को शिखर पर रखा होगा
किंतु हम सिर्फ हिंदू मुसलमान बन कर रह गए
कभी इंसान ना बन सके  
कौन पूछता है भूखे गरीब बीमार निर्बल के दर्द को
कौन देखता है छोटी आंखों में बसे सपनों को
यहां तो बस हम जाति धर्म मजहब में उलझ कर रह गए
बस हम हिंदू मुसलमान बन कर आ गए
कभी इंसान ना बन सके
हिंदू सिर्फ हाथ से हाथ मिलाते रह गए
पर कभी दिल से दिल ना मिला सके
हम बस हिंदू मुसलमान बन कर रह गए
कभी इंसान ना बन सके
यह बातें सूरज को समझ में आ गई
जो बिना फर्क के सभी को अपनी रोशनी से  सीजी है
चांद को समझ में आ गई
जो बिना फर्क के शीतलता का एहसास कराती है
यह नदियों को समझ में आ गई
जो बिना फर्क के सभी की प्यास बुझाती है
इस धरती को समझ में आ गई
जो बिना पर के सभी का पेट भर्ती है
बस हमें यह बात ना समझ सके
हम बस हिंदू मुसलमान बन कर रह गए
कभी इंसान ना बन सके
हम से भली तो छोटी चिड़िया है
जो कभी नदियों के छत पर बैठती है
तो कभी उड़कर मस्जिदों के छत पर बैठती है
और आजादी से आसमानों की ऊंचाइयों की सैर करती है
इतनी सी बात ना समझ सके हम
हम बस हिंदू मुसलमान बन कर रह गए
कभी इंसान ना बन सके  एक्सी हवा एक्सी फिजा है
सभी के लिए फिर इतना फर्क क्यों करते हैं
हम इतनी सी बात ना समझ सके हम
हम बस हिंदू मुसलमान बन कर रह गया कभी इंसान ना बन सके।





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